हज का मुस्लिम समुदाय के लोगों के बहुत महत्व है. इस्लाम के पांच स्तंभों में से इसे एक माना जाता है. इसलिए अल्लाह की इबादत करने के लिए मुस्लिम मक्का की तीर्थ यात्रा करते हैं. हालांकि नियमत: मुस्लिम महिलाएं बिना किसी रक्त संबंधी पुरुष साथी (मेहरम) बिना हज यात्रा नहीं कर सकती हैं. इसके बावजूद उस दौर में मुगल शासक बाबर की बेटी गुलबदन बानो बेगम ने हज यात्रा की थी, जब महिलाएं बिना परदा घर तक से नहीं निकलती थीं.
हालांकि, हज यात्रा पर गईं शहजादी गुलबदन को वहां के सुल्तान ने मक्का से निकलने का हुक्म सुना दिया था. आइए जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसा क्यों हुआ था.
अकबर की बुआ थीं गुलबदन बानो बेगम
वह अकबर का शासन काल था. साल 1576 में अकबर की बुआ गुलबदन बानो बेगम ने हज पर जाने का फैसला किया. उनके इस फैसले का बादशाह अकबर ने भी समर्थन किया. मुगल शासन के इतिहास में पहली बार कोई शहजादी हजारों मील दूर हज पर जा रही थी. सऊदी अरब की यात्रा में गुलबदन बानो बेगम ने हेरम की 11 महिलाओं को शामिल किया. मुगल खानदान की पहली महिला हज यात्री के रूप में उन्होंने 3000 मील की दूरी तय की.
बादशाह ने किए थे खास प्रबंध
इतिहासकार मानते हैं कि इस यात्रा के लिए अकबर ने खास प्रबंध किए थे. महिलाओं के साथ ही गुलबदन बानो के साथ एक सरदार को अनुरक्षक के रूप में भेजा गया था. इसलिए पहाड़ और रेगिस्तान का सामना करते हुए वे मक्का पहुंच गईं. उनके मक्का पहुंचने के बाद खूब हलचल मची. जानकारी मिलने पर महिला हज यात्रियों को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग मक्का की ओर उमड़ने लगे. सीरिया तक से लोग पहुंच रहे थे.
इतिहासकार ने किया है यात्रा का वर्णन
जानी-मानी इतिहासकार रूबी लाल ने गुलबदन बानो की जीवनी लिखी है, नाम है वेगाबॉन्ड प्रिन्सेज़, द ग्रेट एडवेंचर्स ऑफ गुलबदन. इसमें उन्होंने लिखा है कि1576 के सितंबर में गुलबदन बानो बेगम की अगुवाई में मुगल महिलाओं का एक दल दो नावों से सूरत से हज के लिए रवाना हुआ. उस दौर में दान देने के लिए उनके पास छह हजार रुपए थे. रुबी लाल का लिखना है कि महिलाओं के दल के साथ कुछ पुरुष भी थे क्योंकि तब पुरुषों के बिना महिलाओं की यात्रा की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.
सुल्तान ने पांच बार जारी किया था निकालने का फरमान
हालांकि, उस यात्रा के दौरान सभी बड़े निर्णय गुलबदन ही ले रही थीं. बताया जाता है कि मक्का में गुलबदन अपनी साथी महिलाओं के साथ पूरे चार साल रहीं. वह भी तब, जब उनके मक्का पहुंचने के एक साल के भीतर ही वहां के तत्कालीन शासक सुलतान मुराद तृतीय ने गुलबदन और उनकी साथियों को मक्का से निकालने का फरमान जारी कर दिया था. दो साल बाद साल 1580 में यही आदेश फिर से जारी किया गया. ऐसे एक-एक कर पांच आदेश दिए गए जो आज भी तुर्की के राष्ट्रीय अभिलेखागार में संरक्षित हैं.
सुल्तान के फरमान की यह थी बड़ी वजह
दरअसल, अरब शासक मुराद इसलिए नाराज थे और गुलबदन बानो और उनकी साथियों को निकलने का आदेश दिया था, क्योंकि मुगल महिलाओं को देखने लोग पहुंच रहे थे. वे लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थीं. वे जहां भी जातीं, उनको देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी. इसके बावजूद गुलबदन बानो केवल मक्का में ही नहीं रुकीं. उन्होंने अरब के दूसरे शहरों की यात्रा भी की. वह ईरान के तीर्थस्थल मशअद भी गई थीं.
सात साल बाद लौटी थीं भारत
इतिहासकार बताते हैं कि मार्च 1580 में गुलबदन बानो अपनी साथियों के साथ नाव से जेद्दाह से भारत वापसी के लिए रवाना हुईं. उनकी नाव का नाम तेजराव था. बताया जाता है कि अदन के पास पहुंचने पर तेजराव टूट गई. इसके कारण उनको सात महीने अदम में ही रहना पड़ा. इसके बाद वह सही सलामत भारत लौटीं तो यहां से गए उनको सात साल बीत चुके थे. सबसे पहले वह सूरत पहुंचीं और वहां से अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी के लिए रवाना हुईं.
फतेहपुर सीकरी की सड़कों पर उमड़ पड़े थे लोग
इतिहासकार इरा मुखौटी की किताब डॉटर्स ऑफ द सन से पता चलता है कि बादशाह अकबर ने हज पर गईं अपनी बुआ और उनकी साथियों का स्वागत करने के लिए 13 साल के बेटे शहजादे सलीम को अजमेर भेजा था. गुलबदन बानो ने रास्ते में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर भी जियारत की थी. इसके बाद अकबर खुद उनके स्वागत के लिए निकला और फतेहपुर सीकरी से 37 मील पहले खानवा पहुंचा. वहां उसने बुआ का स्वागत किया. फतेहपुर सीकरी पहुंचने पर आम लोग हाजी महिलाओं के स्वागत के लिए सड़कों पर उतर आए थे. 80 साल की उम्र में साल 1603 में गुलबदन बानो बेगन ने दुनिया को अलविदा कह दिया था.