ईरान पर हमले के साथ ही बिखर गई ‘इस्लामिक उम्मा’, तुर्किए-पाकिस्तान तो सबसे पहले भागे

जिन लोगों को साठ के दशक की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के बारे में पता होगा उन्हें यह भी पता होगा किस तरह दुनिया भर के ताकतवर इस्लामी देशों ने मिलकर इजरायल के खिलाफ युद्ध लड़ा था. हालांकि फिर भी वे इजरायल को घुटनों पर नहीं ला सके.इजरायल 6 दिन की जंग में इस्लामी देशों को अकेले धूल चटा दिया था. हालांकि आज वैसी स्थिति नहीं है. आज इस्लामी देशों के पास परमाणु बम है और एक से एक खतरनाक मिसाइलें हैं. पर ईरान के समर्थन में इस्लामी देश केवल जुबानी जंग ही लड़ रहे हैं. कोई भी खुलकर अमेरिका और इजरायल के खिलाफ आना नहीं चाहता है. यहां तक कि इ्स्लामी दुनिया का खलीफा बनने की इच्छा रखने वाले तुर्किए और पाकिस्तान तो तो मैदान छोड़ने वालों में सबसे आगे हैं.

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कभी इस्लामिक उम्मा की ताकत के सामने झुकती थी दुनिया

इस्लामी एकता का एक ऐसा भी युग था जब पूरी दुनिया को झुकाने की हैसियत रखता था. इतिहास में कई मौकों पर ये दिखाई भी दिया. इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष ने दुनिया भर के मुसलमानों को एक साथ आने का मौका दिया. इजरायल की स्थापना के बाद 1948 के प्रथम अरब-इजरायल युद्ध में मिस्र, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान, और इराक ने एकजुट होकर इजरायल के खिलाफ जंग लड़ी. हालांकि फिर भी इजरायल को हराने में ये देश नाकाम रहे पर एकता का यह पहला बड़ा प्रदर्शन था. उसके बाद 1967 में छह दिवसीय युद्ध में भी इस्लामी देशों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर इजरायल को हराने की कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.

पर 1969 में अल-अक्सा मस्जिद में आगजनी के बाद, सऊदी अरब, मिस्र, और अन्य इस्लामी देशों ने रबात में सम्मेलन बुलाकर इस्लामिक एकता के संबंध में एक बड़ा फैसला लिया और OIC जैसा संगठन बनाया. यह इस्लामिक उम्मा की सबसे बड़ा असर 1973 के योम किप्पुर युद्ध के समय दिखा. मिस्र और सीरिया ने इजरायल पर हमला किया, जिसमें सऊदी अरब और अन्य अरब देशों ने तेल प्रतिबंध लगाकर समर्थन दिया. 1979 की ईरानी क्रांति में ईरान ने शाह के पश्चिमी-समर्थित शासन को उखाड़ फेंका, जिसे कई इस्लामी देशों ने इस्लामिक उम्मा की जीत माना. पर बाद के दशकों में शिया-सुन्नी विभाजन, राष्ट्रीय हित, और पश्चिमी कूटनीति ने इस एकता को कमजोर किया. 2025 आते आते तो ऐसा लगता है कि दुनिया में इस्लामी उम्मा नाम की कोई चीज रह ही नहीं गई है.

1979 की ईरानी क्रांति के बाद से, सऊदी अरब और अन्य सुन्नी देशों ने ईरान को एक खतरे के रूप में देखा, जिसने इस्लामी एकता को और कमजोर किया.तुर्की की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं, और पाकिस्तान की वेस्ट पर आर्थिक और सैन्य निर्भरता ने इस एकता को हमेशा के लिए कमजोर कर दिया.

पाकिस्तान की दोहरी नीति, और फिर पीछे हटना

इजरायल के ईरान पर हमले के बाद पाकिस्तान ने इस्लामी दुनिया में चौधरी बनने की कोशिश के तहत पहले तो ईरान का समर्थन किया पर शायद जल्दी ही दूर भी हो गया. प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने इजरायल के हमलों की पाकिस्तान के संसद में निंदा की और युद्धविराम की अपील की. पाकिस्तान सरकार ने इजरायल के खिलाफ मुस्लिम एकता का आह्वान भी किया.पर पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर की डोनाल्ड ट्रंप के साथ 19 जून 2025 को व्हाइट हाउस में लंच ने पूरा माहौल ही बदल दिया है.

अब कहा जा रहा है कि पाकिस्तान अमेरिका को ईरान के खिलाफ जंग में हर तरह से मदद देने को तैयार है. हालांकि ट्रंप के साथ लंच के पहले ही पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने जिस तरह ईरान के एक सैन्य अधिकारी के बातों से पल्ला झाड़ लिया वो यही बताता है कि पाकिस्तान केवल जुबानी जंग के लिए तैयार था.

एक ईरानी अधिकारी ने पिछले दिनों कहा था कि अगर इजरायाल ईरान पर परमाणु हमला करता है तो पाकिस्तान ईरान की तरफ से इजरायल पर परमाणु हमला करेगा. पर ईरानी अधिकारी के इस बयान के 24 घंटे के अंदर ही पाकिस्तान ने इस बयाने से कन्नी काट लिया था. जाहिर है कि इजरायली मिसाइलों पर वेस्ट पर आर्थिक निर्भरता के चलते पाकिस्तान ऐसी कोई गलती नहीं करने वाला है.
अमेरिका और सऊदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता और IMF ऋणों पर पाकिस्तान की निर्भरता किसी से छिपी नहीं है.

तुर्किए ने भी खलीफा बनने का सपना छोड़ा

तुर्किए के बारे में किसी से छिपा नहीं है कि इस्लामी दुनिया में ये देश नेतृत्व की महत्वाकांक्षा रखता है.पर ईरान पर इजरायल के हमले के बाद यह देश भी बहुत सतर्क रुख अपनाया हुआ है. तुर्की के विदेश मंत्रालय ने इजरायल के हमलों की निंदा की और इसे अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताया है पर किसी तरह के सैन्य समर्थन की अभी तक घोषणा नहीं की है.

जबकि भारत ने जब ऑपरेशन सिंदूर चलाया तो पाकिस्तान की हर तरह की मदद के लिए तुर्किए सामने आया था. जिसमें सैन्य हथियार, द्रोण आदि की मदद भी शामिल थी. पर तुर्किए इजरायल और अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हैसियत ही शायद नहीं रखता है. उसे अपनी नाटो की सदस्यता और पश्चिमी देशों के साथ आर्थिक संबंध ईरान की सुरक्षा से ज्यादा जरूरी लगते हैं. तुर्की की अर्थव्यवस्था पहले से ही कमजोर चल रही है ऐसे समय में अमेरिका या यूरोपीय संघ के साथ टकराव करके वो घरेलू मोर्चे पर कोई खतरा नहीं उठा सकता है.

अन्य इस्लामी देशों की सतही प्रतिक्रिया

सऊदी अरब, यूएई, कतर, और मिस्र जैसे देशों ने इजरायल के हमलों की मौखिक निंदा की, लेकिन कोई भी ईरान के साथ खड़ा होने को तैयार नहीं दिखाई दे रहा है. सऊदी अरब और यूएई तो चाहते होंगे कि ईरान किसी भी तरह से कमजोर हो जाए. ये देश ईरान को अपना क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी मानते हैं. इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से युद्धविराम की अपील की, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया. इराक के शिया धर्मगुरु अयातुल्ला अली सिस्तानी ने चेतावनी दी कि ईरान के नेतृत्व को निशाना बनाना तो क्षेत्र में अराजकता फैलेगी. पर इराक भी किसी भी तरह का सैन्य समर्थन का वादा नहीं किया.

जब आतंक का पर्याय बन गया इस्लामी उम्मा

कुछ आतंकी संगठनों जैसे अल-कायदा, ISIS, और बोको हरम के आतंकी घटनाओं के चलते दुनिया में यह संदेश गया कि इस्लाम के नाम पर हिंसा को बढ़ावा मिलता है. हालत यह हो गई कि सामान्य लोग पूरे मुस्लिम समुदाय को आतंकवाद से जोड़कर देखने लगे. इस्लामिक उम्मा विश्व भर में लगभग 1.9 अरब लोगों का समुदाय है, जो विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और विचारधाराओं से समृद्ध है. मुस्लिम जनसंख्या का एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही हिंसक गतिविधियों में शामिल है. दुनिया के तमाम मु्स्लिम देश शांतिपूर्ण तरीके से जीवन जी रहे हैं. बहुत से मुस्लिम देशों ने तरक्की की नई इबारत गढ़ी है. सऊदी, यूएई, कतर और कुवैत आदि पश्चिम को टक्कर दे रहे हैं.

9/11 के बाद वेस्ट के निशाने पर आ गया इस्लामी उम्मा

9/11 के आतंकी हमलों ने वैश्विक स्तर पर इस्लामिक उम्मा (मुस्लिम समुदाय) को पश्चिमी देशों के निशाने पर ला दिया. इन हमलों के बाद पश्चिमी देशों में मुसलमान टाइटिल तक संदेह के घेरे में आ गए. हमलों के बाद अमेरिका ने वॉर ऑन टेरर शुरू किया, जिसके तहत अफगानिस्तान (2001) और इराक (2003) में सैन्य कार्रवाइयां की गईं.अमेरिका का पैट्रियट एक्ट और यूरोप में समान कानूनों ने मुस्लिमों की निगरानी बढ़ाई. इसके चलते बहुत से इस्लामी देशों ने अपना अलग अस्तित्व बनाना उचित समझा. अरब वर्ल्ड ने अलकायदा और IS जैसों संगठनों से दूरी बनाने के चलते इनको समर्थन दे रहे देशों से भी दूरी बना ली. यमन में हूती को समर्थन देने के चलते सऊदी अरब ईरान का दुश्‍मन बन गया, जबकि ईरान को ही हमास और हेजबुल्‍ला का समर्थक होने के कारण आज इजरायल के हमलों का सामना करना पड़ रहा है.

 

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